लॉटरी : मुंशी प्रेमचंद की क्लासिक कहानी | Lottery | Munshi Premchand Stories in Hindi

Summary

लॉटरी जीतने की उम्मीद में दो दोस्तों ने मिलकर टिकट खरीदा। जीतने की उम्मीद में उनकी दोस्ती में दरारें आने लगी। हर कोई अपने हिस्से के पैसे पर नजर जमाए बैठा था। आखिर में पता चला कि लॉटरी किसी और ने जीती है। इस कहानी से पता चलता है कि लालच और धन की चाहत दोस्ती को भी बर्बाद कर सकती है।

 
 

लेखक - मुंशी प्रेमचंद

जल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती? उन दिनों जब लॉटरी के टिकट आये तो मेरे दोस्त विक्रम के पिता और चाचा और अम्माँ और भाई सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया। कौन जाने, किसकी तकदीर जोर करे? किसी के नाम आये, रुपया रहेगा तो घर में ही!

 

मगर विक्रम को सब न हुआ। औरों के नाम रुपये आयेंगे, फिर उसे कौन पूछता है। बहुत होगा दस-पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा? उसको जिन्दगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत् की यात्रा करनी थी, एक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिम्बकटू और होनोलूलू , यह सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आंधी की तरह महीने-दो महीने उड़कर लोट आनेवालों में न था। वह एक-एक स्थान में कई कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन करना और संसार यात्रा का एक वृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जाय। पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था, और बँगला और कार और फर्नीचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चचा के नाम रुपये आये, तो पाँच हजार से ज्यादा का डौल नहीं, अम्माँ के नाम आये, तो बीस हजार मिल जायँगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गये, तो उसके हाथ धेला भी न लगेगा। वह आत्माभिमानी था। घरवालों से भो खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा करता या-भाई, किसी के सामने हाथ फैलाने से तो किसी गड्ढे में डूब मरना अच्छा है। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाय।

वह बहुत बेकार था। घर में लॉटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपया देगा और वह माँगे भी तो कैसे। उसने बहुत सोच-विचारकर कहा-क्यों न हम-तुम साझे में टिकट ले लें।

 

तजवीज मुझे भी पसन्द आयी। मै उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध और घी और जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बालाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत बढ़े।

 

विक्रम ने कहा-कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ? कह दूँगा, उँगली से फिसल पड़ी।

 

अँगूठी दस रुपये से कम न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था, अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है।

 

सहसा विक्रम फिर बोला-लेकिन भई, तुम्हें नकद देने पड़ेंगे। मैं पॉच रुपये नकद लिये बगैर साझा न करूँगा।

 

अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला-नहीं, यह बुरी बात है, चोरी खुल जायगी, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा, और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी।

 

आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकण्ड हैड किताबों की दुकान पर बेच डाली जाये ओर उस रुपये से टिकट लिया जाय। किताबों से ज्यादा बेजरूरत हमारे पास कोई चीज न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ ली, और आँखें फोड़ी, और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियाँ चटका रहे हैं, हमने वहीं हाल्ट कर दिया। मैं स्कूल मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्त करने लगा।

हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा, उनका सत्त निकाल लिया, अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूड़खाने से निकाला और झाड़-पोंछकर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँधा। मै मास्टर था, किसी बुकसेलर की दूकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था। मुझे सभी पहचानते थे। इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घंटे में दस रुपये का एक नोट लिये उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थीं, पर यह दस रुपये उस वक्त हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पांँच लाख मेरे हिस्से में आयेंगे, पाँच विक्रम के। हम अपने इसी में मगन थे।

 

मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा-पाँच लाख कुछ कम नहीं होते जी।

 

विक्रम इतना संतषी न था। बोला-पांच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक्त पाँच सौ भी बहुत हैं भाई, मगर जिन्दगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया।

 

मैंने आपत्ति की – आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे?

 

‘जी नहीं, उसका बजट है साढ़े तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्राम है। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए

 

‘चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।

 

विक्रम ने गर्म होकर कहा-मैं शान से रहना चाहता हूँ। भिखारियों की तरह नहीं।

 

१० ‘दो हजार में भी तुम शान से रह सकते हो।’

 

‘जब तक आप अपने हिस्से में से दो लाख मुझे न देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा।’

 

‘कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्तकालय शहर में बेजोड़ हो।’

 

‘मैं तो बेजोड़ ही बनवाऊँगा।’

 

‘इसका तुम्हें अख्तियार है; लेकिन मेरे रुपयों में से तुम्हें कुछ न मिल सकेगा। मेरी ज़रूरतें देखो। तुम्हारे घर में काफी जायदाद है। तुम्हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्थी का बोझ है। दो बहनों का विवाह है, दो भाइयों की शिक्षा है, नया मकान बनवाना है। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि सब रुपये सीधे बैंक में जमा कर दूँगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्तें लगा दूंँगा, कि मेरे बाद भी कोई इस रकम में हाथ न लगा सके।’

 

विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा––हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय है। खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूँगा लेकिन बैंक के सूद की दर तो बहुत गिर गया है।

 

हमने कई बैंकों के सूद का दर देखा, स्थायी कोष का भी, सेविंग बैंक का भी। बेशक दर बहुत कम था। दो-ढाई रुपये सैकड़े ब्याज पर जमा करना व्यर्थ है। क्यों न लेन-देन का कारोबार शुरू किया जाय। विक्रम भी यात्रा पर न जायगा। दोनों के साझे में कोठी चलेगी, जब कुछ धन जमा हो जायग, तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन में सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोब-दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक अच्छी जमानत न हो, किसी को रुपया न देना चाहिए, चाहे आसामी कितना ही मातबर क्यों न हो। और जमानत पर रुपये दे ही क्यों। जायदाद रेहन लिखाकर रुपये देंगे। फिर तो कोई खटका न रहेगा।

 

यह मंजिल भी तय हुई। अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम

रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया; अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा। मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया, और बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई।

 

( 2 )

 

एक-एक करके इन्तजार के दिन कटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जातीं। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कुल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँधा करते और इस तरह साँय-सांय कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे।

 

एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा-भाई, शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता! व्यर्थ को चिन्ता और हाय-हाय। पत्नी की नाज़बरदारी में ही बहुत-से रुपये उड़ जायेंगे।

 

मैंने इसका विरोध किया-हाँ, यह तो ठीक है, लेकिन जब तक जीवन के सुख-दुःख का कोई साथी न हो, जीवन का आनन्द ही क्या। मै तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हॉ, साथी ऐसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।

 

विक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमिजाजी से बोला-खैर, अपना अपना दृष्टिकोण है। आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना और बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बंदा तो आजाद रहेगा, अपने मजे से जहाँ चाहा गये और जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ गये। यह नहीं कि हर

वक्त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन् जवाब तलब हुआ, कहाँ थे अब तक? आप कहीं बाहर निकले और फौरन् सवाल हुआ, कहाँ जाते हो? और कहीं दुर्भाग्य से पत्नीजी भी साथ हो गयीं, तब तो डूब मरने के सिवा आपके लिए कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। ना भैया, मुझे आपसे जरा भी सहानुभूति नहीं। बच्चे को जरा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं होमियोपैथिक डाक्टर के पास। जरा उम्र खिसकी और लौडे मनाने लगे कि अब आप प्रस्थान करें और वह गुलछर्रें उड़ायें। मौका मिला तो आपको जहर खिला दिया और मशहूर किया कि आपको कॉलरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता।

 

कुन्ती आ गयी। विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की। छठे में पढ़ती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्ली, बड़ी शोख! इतने धमाके से द्वार खोले कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए।

 

विक्रम ने बिगड़कर कहा–तू बड़ी शैतान है कुन्ती, किसने तुझे बुलाया यहाँ?

 

कुन्ती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा- तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बन्द किये बैठे क्या बातें किया करते हो। जब देखो, यहीं बैठे हो। न कहीं घूमने जाते हो, न तमाशा देखने, कोई जादू-मन्तर जगाते होगे?

 

विक्रम ने उसकी गरदन पकड़कर हिलाते हुए कहा-हाँ, एक मंतर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे एक दूल्हा मिले, जो रोज गिनकर पाँच हण्टर जमाये सड़ासड़!

 

कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली-मैं ऐसे दूल्हे से ब्याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दोने फेंक दूंगी और वह चाटेगा। जरा भी ची-चपड़ करेगा, तो कान गर्म कर दूंगी।अम्माँ के लॉटरी के रुपये मिलेंगे, तो पचास हजार मुझे दे देंगी। बस, चैन करूंँगी। मैं दोनों

वक्त ठाकुरजी से अम्मा के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती हैं, क्वाँरी लड़कियों की दुआ कभी निष्फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता है, अम्माँ को जरूर रुपये मिलेंगे।

 

मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया था, तो सूखा पड़ा हुआ था। भादों का महीना आ गया था; मगर पानी की बूंद नहीं। तब लोगों ने चन्दा करके गाँव की सब क्वारी लड़कियों की दावत की थी। और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्य ही स्वारियों की दुआ में असर होता है।

 

मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, विक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया। विक्रम ने कुन्ती से कहा-अच्छा, तुझसे एक बात कहें, किसी से कहेगी तो नहीं? नहीं, तू तो बड़ी अच्छी लड़की है, किसी से न कहेगी। मैं अबकी तुझे खूब पढ़ाऊँगा और पास करा दूंगा। बात यह है कि हम दोनों ने भी लॉटरी का टिकट लिया है। हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना किया कर; अगर हमें रुपये मिले, तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देंगे। सच!

 

कुन्ती को विश्वास न आया। हमने कस्में खायों। वह नखरे करने लगी। जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने और हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने पर राजी हुई।

 

लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थी, यह जरा-सी बात न पची। सीधे अन्दर भागी और एक क्षण में सारे घर में यह खबर फैल गयी। अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा है, अम्माँ भी, चचा भी, पिता भी, केवल विक्रम की शुभ कामना से या और किसी भाव से, कोन जाने-बैठे-बैठे तुम्हें हिमाकत ही सूझती है। रुपये लेकर पानी में फेंक दियें। घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही था, तुम्हें लेने की क्या जरूरत थी, क्या तुम्हें उसमें से कुछ न मिलते? और तुम भी मास्टर

साहब, बिलकुल घोंघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगे, और उसे चौपट किये डालते हो।

 

विक्रम तो लाडला बेटा था। उसे और क्या कहते। कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खाये, तो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा। इसको सोहबत में लड़का बिगड़ा जाता है।

 

‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आयी। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवायी गयी थी। मेरे मामूँ साहब उन दिनों आये हुए थे। मैंने चुपके से कोठरी में जाकर ग्लास में एक चूट शराब ढाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थीं, कि मामूँ साहब कोठरी में आ गये और मुझे मानों सेंध में गिरफ्तार कर लिया और इतना बिगड़े-इतना बिगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया। अम्मा ने भी डाँटा, पिताजी ने भी डाँटा, मुझे आँसुओ से उनकी क्रोधाग्नि शान्त करनी पड़ी और दोपहर ही को मामू साहब नशे से पागल होकर गाने लगे फिर रोये, फिर अम्माँ को गालियाँ दीं, दादा को मना करने पर मारने दौड़े, और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।

( 3 )

 

विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब, और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ानेवाले, पूरे नास्तिक; मगर अब दोनों बड़े निष्ठावान् और ईश्वर-भक्त हो गये थे। बड़े ठाकुर साहब तो प्रातःकल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चन्दन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी

रात तक भागवत् की कथा तन्मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुत्रों के अखाड़ों और कुटियों की खाक छानते, और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। उस उम्र में भी उन्हें सिगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्ति और निष्ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती है, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पंडितों से प्रश्न करके अपने को कभी दुःखी कर लिया करते थे।

 

ज्यों-ज्यों लॉटरी का दिन समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शांति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सन्देह होने लगा, कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इनकार कर दे तो मैं क्या करूँ। साफ इनकार कर जाय कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत। सब कुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डांँवाडोल हुई और मेरा काम तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुंँह तक नहीं खोल सकता। अब अगर कुछ कहूँ भी तो कोई लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया है, तब तो वह अभी से इनकार कर देगा; अगर नहीं आया है, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं है। मगर भई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है! अभी तो रुपये नहीं मिले। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है। परीक्षा का समय तो तब आयेगा, जब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्तःकरण को टटोला-अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे

रुपये बिना कान-पूंछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता? कौन कह सकता है; मगर अधिक सम्भव यही था कि मैं होले-हवाले करता, कहता-तुमने ‘मुझे पाँच रुपये उधार दिये थे। उसके दस ‘ले लो, सौ ले लो, और क्या करोगे; मगर नहीं, मुझसे इतनी बददियानत न होती।

 

दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा-कहीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा, कि नाहक तुमसे साझा किया!

 

वह सरल भाव से मुसकराया; मगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था।

 

मैने चौंककर कहा-सच! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है?

 

‘लेकिन टिकट तो मेरे नाम का हैं?

 

‘इससे क्या।’

 

‘अच्छा, मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इनकार कर जाऊँ?’

 

मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

 

‘मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता।’

 

‘मगर है बहुत संभव। पाँच लाख! सोचो! दिमाग चकरा जाता है।

 

‘तो भई, अभी से कुशल है, लिखा-पढ़ी कर लो। यह संशय रहे ही क्यों?

 

‘विक्रम ने हँसकर कहा-तुम बड़े शक्को हो यार! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है। पाँच लाख क्या, पाँच करोड़ भी हों, तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नियत में खलल न आने दूंँगा।

 

किन्तु मुझे उसके इन आश्वासनों पर मिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय पैंठ गया। मैने कहा-यह तो मैं जानता हूँ, कि तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती; लेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है?

 

‘फिजूल है‌।’

 

‘फजून ही सही।

 

‘तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढ़े सात हजार हो जायेगी। किस भ्रम में हैं आप!’

 

मैने सोचा, बला से, सादी लिखा-पढ़ी के बल पर कोई कानूनी कार्रवाई न कर सकूँगा। पर इन्हें लज्जित करने का, इन्हें जलील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा, और दुनिया में बदनामी का भय न हो, तो आदमी न जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। बोला-मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जायगा।

 

‘विक्रम ने लापरवाही से कहा-जिस कागज का कोई कानूनी महत्व नहीं, उसे लिखकर क्यों समय नष्ट करें?

 

मुझे निश्चय हो गया, विक्रम की नीयत में अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती है। बिगड़कर कहा-तुम्हारी नीयत अभी से खराब हो गयी।

 

उसने निर्लज्जता से कहा-तो क्या तुम यह साबित करना चाहते हो, कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती?

 

‘मेरी नियत इतनी कमजोर नहीं है।

 

‘रहने भी दो। बड़े नियतवाले! अच्छे-अच्छों को देखा है!

 

‘तुम्हें इसी वक्त लेख-बद्ध होना पड़ेगा। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रहा।’

 

“अगर तुम्है मेरे ऊपर विश्वास नहीं है, तो मैं भी नहीं लिखता।’

 

‘तो क्या तुम समझते हो, तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे।’ ‘किसके रुपये और कैसे रुपये?’

 

‘मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का ही अन्त हो जायगा; बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा।’

 

हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी।

 

सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। भड़प को तो बात ही क्या, मैने उनमें कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ। दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनों भाई अपनी-अपनी कुरसियों से उठकर खड़े हो गये थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ पाये थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्योरियाँ चढ़ी हुई’, मुट्टियाँ बँधी हुई। मालूम होता था, बस हाथा-पाई हुआ ही चाहती है।

 

छाटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा-सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका है, बराबर।

 

बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम ओर आगे बढ़ाया-हरगिज नहीं; अगर मै कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्न है।

 

‘इसका फैसला अदालत से होगा।’

 

‘शौक से अदालत जाइए; अगर मेरे लड़के मेरी बीवी, या मेरे नाम लॉटरी निकली तो आपका उससे कोई सम्बन्धन होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लॉटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे

लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।’

 

‘अगर मैं जानता आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीवी-बच्चों के नाम से टिकट ले सकता था।’

 

‘यह आपकी गलती है।

 

‘इसी लिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।’

 

‘यह जुआ है, आपको समझ लेना चाहिए। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता; अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस मै हार आयें, तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।’

 

‘मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।’

 

‘आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर, न कोई महात्मा।’

 

विक्रम की माता ने सुना कि दोनों भाइयों में ठनी हुई है औरम ल्लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आयीं और दोनों को समझाने लगीं।

 

छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा-आप मुझे क्या समझाती हैं, उन्हें समझाइए, जो चार-चार टिकट लिये बैठे हुए हैं। मेरे पास क्या है, एक टिकट। उसका क्या भरोसा! मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चांस है, उनकी नीयत बिगड़ जाय, तो लज्जा और दुःख की बात है।

 

ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा-अच्छा, मेरे रुपये में से आधे तुम्हारे। अब तो खुश हो।

 

बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी-क्यों आधे लेंगे? मै एक घेला भी न दूंगा। हम मुरौवत और सुहृदयता से काम लें, फिर भी इन्हें पाँचवें हिस्से से ज्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है, न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक।

 

छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा-सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं! ‘जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है?

 

यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंँगा।

 

‘बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का!’

 

‘मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।’

 

इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए, कपड़ों पर ताजे खून के दाग लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एक पाराम-कुरसी पर गिर पड़े। बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा-यह तुम्हारी क्या हालत है जी! ऐं, यह चोट कैसे लगी? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी?

 

प्रकाश ने कुरसी पर लेटकर एक बार कराहा, फिर मुसकराकर बोले-जी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।

 

‘कैसे कहते हो चोट नहीं लगी? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है? कोई मोटर-दुर्घटना तो नहीं हो गयी

 

‘बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। ‘घबराने की कोई बात नहीं।’

 

प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, ‘शान्त मुस्कान थी। क्रोध, लज्जा वा प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।

 

बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा-लेकिन हुश्रा क्या, यह क्यों नहीं बतलाते? किसी से मार-पीट हुई हो, तो थाने में रपट करवा दूंँ।

 

प्रकाश ने हलके मन से कहा -मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब! बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते है, वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं। जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा

रहा, वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचा, तो एक पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिये, कोई बहुमूल्य भेंट लिये, कोई कपड़ों के थान लिये। झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोली और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या था, भगदड़ मच गयी। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गये। एक भी न टिका। अकेला मै घंटाघर की तरह वहीं डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्ना गयी। खून की धारा बह चली। लेकिन मै हिला नहीं। फिर बाबाजी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा। मैं गिर पड़ा और बेहोश हो गया। जब होश आया, तो वहाँ सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्ध्दान हो जाया करते हैं। किसे पुकारू, किससे सवारी लाने को कहूँ। मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उदा और सीधा डाक्टर के पास गया। उन्होंने देखकर कहा-हड्डी टूट गयो है। और पट्टी बाँध दी। गर्म पानी से सेंकने को कहा है। शाम को फिर आवेंगे। मगर चोट लगी तो लगी; अब लॉटरी मेरे नाम आयी धरी है। यह निश्चय है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूंँगा।

 

बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखायी दी। फौरन् पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगी, उनकामुख भी प्रसन्न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरासौदा न था।

 

छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्योंही बड़े ठाकुर भोजन करने गये, और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबंध करने गयीं, त्योंही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा-क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं? जोर से तो क्या मारते होंगे? प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा-अरे साहब, पत्थर नहीं मारते, बमगोले मारते हैं। देव-सा तो डोल-डौल है, और बलवान इतने हैं कि एक घुसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं। कोई ऐसा वैसा आदमी हो, तो एक हो पत्थर में टें हो जाय। कितने ही तो मर गये; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं जाते, जब तक आप गिर न पड़ें और बेहोश न हो जायँ, वह मारते जायेंगे; मगर रहस्य यही है कि आप जितनी ज्यादा चोटें खायेंगे, उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुँचेंगे…

 

प्रकाश ने ऐसा रोएँ खड़े कर देनेवाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।

 

( 4 )

 

आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया-जुलाई की बीसवीं तारीख। कत्ल को रात! हम प्रातःकाल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और मन्दिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी। मंदिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा-अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपा-दृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमने कितनी मुशकिल से टिकट खरीदे हैं। तुम तो अन्तर्यामी हो। संसार में हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन deserve करता है? विक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा-मैं डाकखाने जाता हूँ, और हवा हो गया। जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिये हुए घर में से निकले और मंदिर के द्वार पर खड़े होकर कंगाली को बाँटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गयी थी। और दोनों ठाकुर भगवान् के चरणों में लौ लगाये बैठे हुए थे, सिर झुकाये, आँखें बन्द, अनुराग में डूबे हुए। बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले-भगवान् तो बड़े भक्त-वत्सल हैं, क्यों पुजारीजी?

 

पुजारी ने समर्थन किया-हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।

 

एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया और पुजारीजी से बोले– क्यों पुजारीजी, भगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैं, अन्तर्यामी, सब के दिल का हाल जानते हैं?

 

पुजारी ने समर्थन किया-हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते, तो सबके मन की बात कैसे जान जाते? शवरी का प्रेम देखकर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की।

 

पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गायी और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुंँह फेर लिया।

 

सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा-तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारीजी!

 

पुजारी बोला-सरकार की फते है।

 

छोटे ठाकुर ने पूछा-और मेरी?

 

पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा-आपकी भी फते है!

 

बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मंदिर से निकले-‘प्रभुजी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभुजी।’

 

एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब मंदिर से गाते हुए निकले-

 

‘अब पति राखो मोरे दयानिधि तोरी गति लखि न परे।’

 

मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहा; पर उन्होंने थाल हटाकर कहा-आप रहने दीजिए,मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी है। मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुसकराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जयजयकार की हाँक लगा रहे हैं।

 

बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा-बोलो राजारामचन्द्र की जय!

 

छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी-बोलो हनुमानजी की जय!

 

प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ चीखा-दुहाई झक्कड़ बाबा की!

 

विक्रम ने और जोर से कहकहा मारा–फिर अलग खड़ा होकर बोला–जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लॅूगा। बोलो है मंजूर?

 

बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा-पहले बता तो!

 

‘ना! यों नहीं बताता।

 

छोटे ठाकुर बिगड़े-महज बताने के लिए एक लाख? शाबाश!

 

प्रकाश ने भी त्योरी चढ़ायीं-क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है है?

 

‘अच्छा तो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।”

 

सभी फौजी अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये।

 

‘होश-हवाश ठीक रखना।

 

सभी पूर्ण सचेत हो गये।

 

‘अच्छा तो सुनिए कान खोलकर, इस शहर का सफाया है। इस शहर का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत का सफाया है। अमेरिका के एक हब्शी का नाम आ गया।

 

बड़े ठाकुर मल्लाये-झूठ, झूठ, बिलकुल झूठ!

 

छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला-कभी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों हो रही! वाह! प्रकाश ने छाती ठोककर कहा-यहाँ सिर फुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं; दिल्लगी है!

 

इतने में और पचासों आदमी इधर से रोनी सूरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया अमेरिका का हब्शी! अभागा! पिशाच! दुष्ट!

 

अब कैसे किसी को विश्वास न आता। बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया-इसी लिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है! हराम का माल खाते हो और चैन करते हो।

 

छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला।

 

माताजी ने केवल इतना कहा-सभों ने बेईमानी की है। मै कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें! किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेगे।

 

रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला-चलो होटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।

 

मैने पूछा-तुम डाकखाने से आये, तो बहुत प्रसन्न क्यों थे?

 

उसने कहा-जब मैने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे और दुनिया में तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायेंगे। और मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया, और मुझे हॅसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि……

 

११ मैं भी हँसा-हाँ, बात तो यथार्थ में यही है, और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे; मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी की नहीं?

 

विक्रम मुसकराकर बोला-अब क्या करोगे पूछकर। पर्दा ढंँका रहने दो।

Source:
मुंशी प्रेमचंद की कहानी “लॉटरी “
आर्काइव:  Archive

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